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कहानी बिहार के उस अंडे बचने वाले लड़के की जिसने अपनी मेहनत से UPSC क्लियर किया !


भारत में प्रतिभावान लोगों को कमी नहीं है, लेकिन ग़रीबी एक ऐसी बीमारी है जो बड़ी से बड़ी प्रतिभा को खा जाती है. हमारे आस-पास कई ऐसे लोग हैं, जिनके पास तेज़ दिमाग है. कुछ कर गुज़रने का हौसला है, लेकिन ग़रीबी के कारण ये लोग आगे नहीं बढ़ पाते. हार कर इन्हें अपने सपनों का त्याग कर के किसी काम धंधे पर लगना पड़ता है. हालांकि, इन्हीं में कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो कठिनाइयों को अपनी राह का रोड़ा नहीं बनने देते |

ये ग़रीबी की चुनौती को स्वीकार करते हैं और अपनी मेहनत और हौसले के दम पर इन चुनौतियों को लांघते हुए सफलता को पा लेते हैं. ऐसी ही एक कहानी आज हम आपको बताने जा रहे हैं |एक लड़का जिसने अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए अंडे और सब्जियां बेचीं, झाड़ू पोछा तक लगाया, लेकिन कभी हिम्मत नहीं हारी, वो लगातार मेहनत करता रहा. एक दिन उसकी मेहनत रंग लाई. वो UPSC पास करने में सफल रहा.
यह कहानी बिहार के सुपौल के एक साधारण से लड़के मनोज की है. मनोज को साधारण कहना भी सही नहीं होगा. क्योंकि साधरण के पास कम से कम साधारण सा जीवन तो होता है. मनोज का जीवन तो चुनौतियों भरा था. आप गरीब हैं, ये उतनी बड़ी समस्या नहीं है. बड़ी समस्या तब होती है, जब आप गरीब होने के बावजूद कोई बड़ा सपना देख लेते हैं. मनोज के साथ भी ऐसा ही था.


करोड़ों आम लोगों की तरह इसे भी घर चलाने के लिए काम धंधा करना चाहिए था. मगर ये अपने सपने पूरे करने में लग गया. 12वीं तक पढ़ने के बाद मनोज नौकरी की तलाश में दिल्ली चला आया. मन में एक आग थी. बस उस आग को एक हवा मिलनी बाकी थी. पढ़ने में शुरू से बहुत होशियार था मनोज. कई दोस्तों ने उसे समझाया था कि पढ़ाई मत छोड़ना. मगर यहां दिल्ली में तो उसका पेट भरना भी आफ़त हो गया था.

नौकरी ना मिलने पर मनोज ने अंडे और सब्जी बेचना शुरू कर दिया. इससे भी काम नहीं चला तो उसने एक ऑफिस में झाड़ू पोछा भी लगाया शुरू कर दिया. अगर अपने आसपास देखें तो आप पाएंगे कि हर किसी के जीवन में किसी ना किसी रूप में कोई मार्ग दर्शक ज़रूर मिलता है, जो उसे बताता है कि ‘भाई तुम ये रास्ता पकड़ो. तुम्हारे लिए ये बेस्ट है.’

sara दिन वो काम करता तथा शाम को क्लास. अंडे और सब्जियां बेचते हुए मनोज ने 2000 में बीए पास कर ली. आगे उदय ने मनोज से कहा कि वह यूपीएससी की परीक्षा दे.

इधर मनोज आगे पढ़ना तो चाहता था, लेकिन उसकी आर्थिक स्थिति उसे ऐसा करने की इजाज़त नहीं दे रही थी. उसने कुछ दिन इस बारे में सोचा और अंत में उसने फैसला किया कि उसे यूपीएससी के लिए प्रयास तो करना ही चाहिए. अगर उसका प्रयास सफल हुआ तो उसकी ज़िंदगी बदल जाएगी. यही सब सोच कर मनोज ने यूपीएससी की तैयारी करने का मन बनाया.

उसे भी रास बिहारी में एक अच्छा गुरू दिखा. मनोज उनसे पढ़ने के लिए दिल्ली से पटना आ गया. उसने अगले तीन साल यहीं पटना में ही बिताए. इस दौरान वो स्कूल के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाया करता. इसी से मिलने वाले पैसों से वो अपना गुजार भी करता और इसके साथ उस यूपीएससी कोचिंग की फीस भी भरता, जो उसने यहां आने के बाद ज्वाइन किया था.

2005 में मनोज ने पहली बार यूपीएससी की परीक्षा दी, लेकिन यूपीएससी तो उस रूठी हुई महबूबा की तरह है जिसे मनाने में सालों साल लग जाते हैं, फिर भी अधिकतर को इसकी मोहब्बत नसीब नहीं होती. मनोज का पहला चांस मिस हो गया और वह फिर से दिल्ली आ गया. कंपटीशन की तैयारी इंसान को ढीठ बना देती है. दशरथ मांझी की तरह हर कोई यही कहता है, जब तक तोड़ेंगे नहीं तब तक छोड़ेंगे नहीं |

चुके थे. वो फिर से तैयारी में जुट गया. उधर, किस्मत भी मनोज की अच्छी परीक्षा ले रही थी. एक के बाद एक तीन परीक्षाओं में भी नहीं असफलता ही हाथ लगी. यहां सबसे ज़्यादा दिक्कत उसे भाषा की हुई. मनोज बिहार के ऐसे स्कूलों में पढ़ा था, जहां ना किताबों का पता होता था ना पढ़ाने वाले मास्टर जी का.ऐसे में उसका यहां तक आना ही बड़ी बात थी. ऐसे स्कूल से पढ़ा मनोज हिंदी में ही परीक्षा दे सकता था लेकिन समस्या ये थी कि हिंदी में यूपीएससी का स्टडी मटीरियल खोजना आसान नहीं था | 

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